Pooja Kumari, Pankaj Kumar Jha
किसी भी देश की सभ्यता एवं संस्कृति उस
देश के धर्म में अनुस्यूत रहती है एवं धर्म एक निश्चित विधान के द्वारा किया जाता है । धर्म की परिभाषा अन्यान्य ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न ढंग से प्रतिपादित की गई है किन्तु
साधारणतया ‘धारणाद्धर्मः’ इस प्रमाण के बल पर धर्म की निर्दुष्टता स्पष्ट है । यह निश्चित नहीं कि धर्म
का फलाफल हो ही कभी -कभी वह सद्यः फल देती है तो कभी कालान्तर में क्योंकि कर्म
करने वाले का सिर्फ कर्म पर ही अधिकार होता है,
उसके फल पर नहीं, ऐसा यदि सम्भव होता कि कर्त्ता भी वही तथा फलदाता भी वही
होते तो वह परीक्षार्थी भी स्वयं तथा परीक्षक भी स्वयं ही होते किन्तु ‘तेरे मन कछु और है विधिना के कछु और’
अर्थात् कर्त्ता के मन कुछ और रहता है तथा विधि के मन में
कुछ और किन्तु निखिलब्रह्माण्ड के स्वामी जो हैं वही सर्वोत्कृष्ट कर्त्ता हैं । उनके कर्म में व्यवधान करने वाला आज तक नहीं हुआ किन्तु कभी-कभी
इनके अपवाद भी देखे गए हैं, जिन्हें हम आगे स्पष्ट करेंगे क्योंकि
‘विधिर्वाक्यात् निषेधवाक्यं निषेधवाक्यात् विधिर्वाक्यम्’
इस मीमांसा वचन के अनुसार हर नियम के ऊपर उनके निषेधात्मक तथा अपवादक नियम अवश्य ही रहते हैं । इसी नियम के साथ जीवन की गाड़ी स्व काल में सम्यक्तया चलने
में समर्थ हो पाती है।
प्रस्तुत शोध में जीवन के विभिन्न
पहलूओं पर लाभ हानि इत्यादि विषयों को लेकर विचार किया गया
है तथा विशिष्टतया भगवत्शरणार्थ जीवन
समर्पित कर जीने के लिए शास्त्रानुचित मार्ग प्रदर्शित किया गया है । भाग्य तथा पुरुषार्थ के मध्य पुरुषार्थ के साथ भाग्य सम्बन्धित विषय को स्पष्टतापूर्वक रखा गया है एवं जीवन जीने की दृष्टि को एक भिन्न तरीके से चरितार्थ करने का प्रयास किया गया है ।
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विधि ।
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विधान ।
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भाग्य ।
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पुरुषार्थ ।
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काल ।
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कर्म ।
VOL.14, ISSUE No.1, March 2022